Thursday, 5 September 2013

पूस की रात

याद है फूस की उस झोपरी मे पूस , की वह रात याद  है  , लेता उबासी बादलो  के बीच , छुपता चाँद , तेज झोको में दीवारों  से सटे माँ  के तन से कुनमुनाते , भूख  से लिपटे  हुए  दो हाथ ,! याद है , उस मेह   में , भीगे  बदन , नीलाम  होती  औरतो  की लाज ! चार दाने  भात के और भर पतीला  आस ! धान  की उन किनकियो  में अनकही  फरियाद , याद है , वे अधपकेसे खोलते  जज्बात ! कपकपाते  कोहरे  में ठण्ड से  अकड़े  हुए , अधफटे  उन कथरियो  से , पांव  बाहर  झांकते ! याद  है बेबस  पिता की कोटरों मे  धंस  गई दो आँख ! याद  है फूस की उस झोपडी  में पूस की वह रात !,

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