याद है फूस की उस झोपरी मे पूस , की वह रात याद है , लेता उबासी बादलो के बीच , छुपता चाँद , तेज झोको में दीवारों से सटे माँ के तन से कुनमुनाते , भूख से लिपटे हुए दो हाथ ,! याद है , उस मेह में , भीगे बदन , नीलाम होती औरतो की लाज ! चार दाने भात के और भर पतीला आस ! धान की उन किनकियो में अनकही फरियाद , याद है , वे अधपकेसे खोलते जज्बात ! कपकपाते कोहरे में ठण्ड से अकड़े हुए , अधफटे उन कथरियो से , पांव बाहर झांकते ! याद है बेबस पिता की कोटरों मे धंस गई दो आँख ! याद है फूस की उस झोपडी में पूस की वह रात !,
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