Thursday, 14 March 2013

"शहर-ए-लखनऊ"

यहाँ सूरज मद्धम हो जाता ,
चुपके से चाँद निकलता है ,

         बिंदास गोमती का पानी ,
         लहरों पर शहर मचलता है ,

बांगों का और फव्वारों का ,
स्वादों का और लिबासों का ,

         रेशम के दस्तरखानों का ,
         है जश्नें शौक नवाबों का ,

तहजीबों और तमीजों का ,
यह शहर शाम से जगता है ,

        रौनक बाजारों की बढती ,
        जैसे जैसे दिन ढलता है ,

उन्माद खरीददारी का हो ,
या फिर गंजिंग की हो मस्ती ,

       हर हाट महोत्सव के पीछे ,
       पागल दीवानों की बस्ती ,

यहाँ ईद दिवाली रोज मने ,
पर बैर न मन में पलता है ,

      कुछ कहने से यह शहर अभी ,
      भी सौ सौ बार हिचकता है ,

मन्नत है कोई दुआओं की ,
जन्नत है कोई किताबों की ,

      खुशबू की, और खयालों की ,
      है एक तमन्ना ख़्वाबों की ,

'लखनऊ' इबादत लफ़्ज़ों की ,
बातों में शहर झलकता है ,

       है एक सलीका जीने का ,
       अफसाना कोई लगता है ।


             

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